राजा राम
― अभिजीत सिंह
‘भारत भूमि’ पर ‘पृथु’ से लेकर ‘हरिश्चंद्र’, ‘मान्धाता’ और ‘रघु’ से लेकर ‘श्रीकृष्ण’ और ‘युधिष्ठिर’ तक जितने राजा हुये उनकी संख्या सूची बनाना जितना कठिन है, उनमें “सबसे श्रेष्ठ कौन हैं” इसका उत्तर उतना ही आसान है।
सबने एक स्वर में यही कहा है कि भारत- भूमि पर जन्में समस्त राजाओं में सबसे श्रेष्ठ “श्रीराम” थे।
‘शुक्र-नीति’ में कहा गया है:-
“न राम सदृशो राजा भूमौ नीति मानभूत”
शुक्र-नीति में जो कहा गया है उसका दर्शन पूरे रामायण में कई बार होता है। वहां राम कई जगहों पर राजा के रूप में भी प्रस्तुत हैं और कई जगहों पर औरों को राज-काज की शिक्षा देते हुये भी प्रस्तुत हैं।
राम जब राजा बने तो “उन्होंने राजा और आदर्श राज्य कैसा हो” इसका आदर्श प्रस्तुत किया जिसे तुलसी बाबा ने लिखा है:-
“दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज नहीं कहहूँ व्यापा”
और जब वो राजा नहीं थे तब भी उन्होंनें इसी राज्य-मर्यादा की शिक्षा अपने अनुजों और मित्रों को दी थी।
भरत चित्रकूट में जब राम से मिलने जातें हैं तो तत्कालीन अयोध्या नरेश भरत को राम राज-काल की जो शिक्षा देतें हैं वो आज के शासकों के लिये भी पाथेय है।
राम भरत से पूछ्तें हैं:-
● भरत ! तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जाग तो जाते हो न?
● सैनिकों को देने के लिये नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर तो देते हो न? इसे देने में कोई विलंब तो नहीं करते? क्योंकि अगर सैनिकों को नियत समय पर वेतन, भत्ता न दिया जाये तो वो अपने स्वामी पर अत्यंत कुपित हो जातें हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ हो जाता है।
● क्या तुम नीतिशास्त्र की आज्ञा के अनुसार चार या तीन मंत्रियों के साथ-सबको एकत्र करके अथवा सबसे अलग-अलग मिलकर सलाह करते हो?
● तुम राजकार्यों के विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते?
● क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है न? तुम्हारे खजाने के धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता?
● काम-काज में लगे हुये सारे मनुष्य तुम्हारे पास निडर होकर तो आतें हैं न?
● जंगल तुम्हारे राज्य में सुरक्षित तो हैं न?
● तुम्हारे राज्य में दूध देने वाली गौएँ तो अधिक संख्या में है न?
● क्या तुम्हारे राज्य में स्त्रियाँ भलीभांति सुरक्षित तो रहतीं हैं न?
● कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलानेवाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र तो हैं न?
● तुम्हारे राज्य में सिंचाई व्यवस्था तो उत्तम है न?
● तुम नास्तिक ब्राह्मणों का तो संग नहीं करते? क्योंकि वो अज्ञानी होते हुये भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी मानतें हैं।
● तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है, वह पुरुष अपने ही देश का निवासी, विद्वान, कुशल और प्रतिभाशाली तो है न? उसे जैसा निर्देश दिया गया हो वैसा ही वो दूसरे (राष्ट्राध्यक्ष) के सामने कहता है न?
● क्या तुम्हारे सारे अधिकारी और मंत्री-मंडल के लोग तुमसे प्रीति रखतें हैं? क्या वो तुम्हारे लिए एकचित्त होकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिये तैयार रहतें हैं?
● क्या तुम अपने सेनानायकों को यथोचित सम्मान देते हो?
● वो लोग जो राजा के राज्य को हड़प लेने की इच्छा रखतें हो वैसे दुष्टों को अगर राजा नहीं मार डाता, वह स्वयम उसके हाथ से मारा जाता है।
● भरत ! जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का तथा स्त्रियाँ कामचोर पुरुष का तिरस्कार कर देतीं हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती?
● क्या तुमने अपने ही समान सुयोग्य व्यक्तियों को ही मंत्री बनाया है?
● क्या तुम अर्थशास्त्री सुधन्वा का सम्मान करते हो?
राम ने राजनीति संबंधी ये उपदेश सुग्रीव से लेकर लक्ष्मण तक सबको दिये थे। प्रभु कहतें हैं:-
● सामनीति के द्वारा न तो इस लोक में ही कीर्ति प्राप्त ही जा सकती है और न ही संग्राम में विजय हासिल होता है.
● यदि राजा दंड देने में प्रमाद कर जाये तो उन्हें दूसरे के किये हुए पाप भी भोगने पड़ते हैं.
● राजा को अपने सु-हृदयों की पहचान अवश्य होनी चहिये.
● सेवकों को कम वेतन देने वाला राजा नष्ट हो जाता है.
● जो राजा बड़ा अभिमानी हो, स्वयं को ही सर्वोपरि माने ऐसे राजा को संकटकाल में उसके अपने लोग ही मार डालतें हैं इसलिये राजा को इन दुर्गुणों से बचना चाहिये।
● जो राजा अपने उपकारी मित्रों के सामने की गई अपनी प्रतिज्ञा (वादा/ घोषणा) को झूठी कर देता है , उससे बढ़कर कोई क्रूर नहीं होता।
ऊपर प्रभु के जितने भी उपदेश हैं क्या उनमें से किसी एक के बारे में भी कोई कह सकता है कि अब वो प्रासंगिक नहीं रहा जबकि राजनीति विषयके ये उपदेश भगवान ने लाखों साल पहले दिये थे?
रामलला के राजनीति-विषयक उपदेशों का ये सार-संक्षेपण मात्र है। आज के समय में जो प्रासंगिक है उसी को आधार बनाकर और राम के उपदेशों से कुछ का चयन कर मैंने सामने रखा है। हमारी वर्तमान पीढ़ी इस बात को समझे कि राम भारत के लिये क्या हैं।