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अखण्ड भारत : शुभ संकल्प की ओर

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अखण्ड भारत : शुभ संकल्प की ओर

~अभिजीत सिंह

ज्यादा अतीत में न जायें तो भी 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज प्रशासनिक अफसर जब कलकत्ता के अपने दफ़्तर में बैठते थे तो प्रोटोकॉल के अनुसार उनके पीछे की दीवार पर उस भारत का मानचित्र लगा होता था जिसे वो “इंडिया” कहकर पुकारते थे।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उस नक़्शे के अनुसार भारत का क्षेत्रफल था लगभग 83 लाख वर्ग किलोमीटर जो आज घटकर मात्र लगभग 33 लाख वर्ग-किलोमीटर रह गया है।

यानि 1857 के बाद हमने अपनी भारतभूमि का लगभग पचास लाख वर्ग किलोमीटर भूभाग गवां दिया।

क्यों गँवा दिया इसकी चर्चा फिलहाल इसलिये फ़िज़ूल है; क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हमने इस अवधि में क्या-क्या खोया है और क्या-क्या गंवाया है। हम अगर गँवाने की बात करें तो लगता है, अरे सैंतालिस में पाकिस्तान गया बस और क्या?

जो कुछ अधिक पढ़-लिख गये वो गँवाने में सूची में बर्मा को भी जोड़ लेते हैं, जबकि सच ये है कि पाकिस्तान (बांग्लादेश समेत) और बर्मा का सम्मिलित क्षेत्रफल केवल सत्रह लाख वर्ग किलोमीटर के लगभग बनता है यानि इसके अलावा भी हमने तेईस लाख वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र और गँवाया है। मज़े की बात ये है कि गंवाने का ये क्रम 1947 की आजादी के बाद भी जारी रहा है।

 

उस विस्तृत भारत में ‘अदन’ का इलाका कम से कम 1937 तक शामिल था। इसके साथ-साथ फारस की खाड़ी के “त्रुशल स्टेट्स” भी उसी नक़्शे में समाहित था, इसमें “सोमालीलैंड” शामिल था, इसी में श्रीलंका और सिंगापुर भी था। बलूचिस्तान और खैबर पख्तून’ख्वाँ का इलाका भी हमारा ही था।

 

और ऐसा नहीं कि ये हिस्से ब्रिटेन के उपनिवेश थे इसलिये हम उन्हें अखंड भारत की सीमाओं में मान रहे हैं बल्कि ऐसा इसलिये है क्योंकि स्वयं ब्रिटिश लोग ये मानते थे कि ये सब अतीत से भारत के ही अंग रहे हैं।

 

अफगानिस्तान गया, सिंध गया, मुल्तान गया, बलूचिस्तान, आधा पंजाब और बांग्लादेश गया, कश्मीर गया और हम सिवाय कबूतर उड़ाने और ये डींग मारने में रह गये कि हम तो बड़े शांति वाले देश हैं जिसने किसी पर कभी आक्रमण नहीं किया।

 

हालाँकि हमको कहना ये चाहिए था कि हम कटते-लूटते और सिमटते रहे पर इसके बाबजूद हमने कभी उफ़्फ़ भी न की, हमारी मातृभूमि जाती रही पर इसे लेकर हमारे अंदर कोई वेदना नहीं हुई।

 

अब तो हालत ये है कि हमारी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसे ये कल्पना ही नहीं है कि देश के विभाजनों के साथ हमने क्या-क्या खोया है। हमारी नई पीढ़ी में तो छोड़िये पुराने लोगों में भी कम ही हैं जिनको भारत का कटा-फटा नक्शा देखकर वेदना होती है।

 

भगवान राम के जीवन की यात्राओं पर बनी “रामवनगमन स्थल परियोजना” का नाम आपने सुना होगा। प्रभु राम के जीवन में अनेकानेक यात्राओं में एक यात्रा जो अयोध्या से लंका तक की है, ये परियोजना उसी यात्रा पर आधारित है पर बहुत कम लोगों को ये पता होगा कि प्रभु के जीवन में यात्राओं के पाँच चरण है; जिसमें एक चरण वो है जब भगवान भारत-भूमि के अंदर तीर्थयात्रा कर रहे थे।

अपने तीर्थयात्राओं के क्रम में प्रभु राम हिंगलाज माता मन्दिर भी गये थे, जो दुर्भाग्य से आज पाकिस्तान में है। प्रभु ने इस मंदिर में यज्ञ भी किया था और उस इलाके के राज्यों का संचालन सुचारू रूप से चले इसके लिये माँ से आशीर्वाद माँगा था। बाद में श्रीराम के पुत्र कुश और लव ने उन इलाकों में कुशपुर और लवपुर नाम से शहर बसाया था। हिंगलाज भवानी के इस मंदिर में भगवान परशुराम भी आये थे और उसी जगह उनके पिता जमदग्नि ऋषि ने तपस्या किया था।

 

आज हिंगलाज मंदिर हमारे पास नहीं है, वीजा लेकर उनके दर्शनों को जाने में भी तमाम दिक्कतें हैं और ये कहानी अकेले हिंगलाज की नहीं है, पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में अनगिनत मंदिर और तीर्थ थे जो अब नहीं है।

दुःख की बात ये है कि हममें से किसी को भी खत्म होते और मिटते मंदिरों की सूची बनाने की भी कल्पना नहीं है।

 

इन मंदिरों का अतीत और इतिहास क्या है इसकी चिंता तो बहुत दूर की बात है। वहां कितने मंदिर थे? कहाँ थे? किसने बनवाये थे? कब तक वहां पूजा-पाठ होती थी? और कबसे पूजा-पाठ बंद है? ये सब कौन सोचेगा अगर हम न सोच सकें तो?

 

भारत के सिमटने का बड़ा नुकसान सिखों को भी हुआ, क्योंकि नानक देव जी लाहौर शहर से लगभग 80 किलोमीटर दक्षिण- पश्चिम स्थित ननकाना साहिब में जन्में, आज के पाकिस्तान के कपूरथला जिला के सुल्तानपुर लोधी में नानक जी के बड़े बेटे बाबा श्रीचंद का जन्म हुआ था, आज के पाकिस्तान में ही उनके दूसरे बेटे बाबा लखमीचंद जी का जन्म हुआ। दूसरे गुरु गुरू अंगद देव जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गांव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में है वहां हुआ।

चौथे गुरू राम दास (जेठा जी) का जन्म चूना मण्डी, लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ। लाहौर और पाकिस्तानी पंजाब में ही करतारपुर साहिब आता है, जहाँ गुरु नानक देव जी 1522 में आए थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी 18 साल यहीं गुज़ारे थे और यहीं पर उनका शरीर छूटा था। पाकिस्तान में ही नानक जी से जुड़े कई केंद्र और गुरूद्वारे हैं, जो सिखों के लिए श्रद्धा के केंद्र हैं। लाहौर महाराणा रणजीत सिंह की राजधानी रही है।

 

इसलिए कुछ और नहीं तो कम से कम एक संकल्प करिये कि भारत-भूमि के बाहर के ऐसे सारे मंदिरों, तीर्थ-स्थलों, गुरुद्वारों, बौद्ध-गुंफाओं के बारे में हमलोग कुछ न कुछ जानकारी इकट्ठी करें और आपस में साझा करें। अखंड भारत की स्मृतियों को जीवित रखें।

 

बस इन भावों को आपस में जिंदा रखिये तो एक दिन यही कल्पना वास्तविकता में भी बदलेगी। और अगर इतना भी नहीं कर सकते तो फिर और बुरे के लिये तैयार रहिये क्योंकि ‘मांधाता’ के समय भारत की सीमा पूरी दुनिया में विस्तारित थी जो आज घट के केवल 33 लाख वर्ग-किलोमीटर रह गई है और ये संकुचन आगे भी जारी रहने वाला है।

!! तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु !! (यजुर्वेद अध्याय 34 मंत्र 1-6)

~ अभिजीत सिंह 

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