भोपाल के पुरखों को न्यौता

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भोपाल के पुरखों को न्यौता
~विजय मनोहर तिवारी

मालिनी अवस्थी भोपाल आईं तो भारत भवन के पहले भीम बैठका गईं। शिलाओं पर उकेरे गए हजारों साल पुराने चित्रों को देखने, जो अब एक विश्व विरासत हैं। वे भोपाल के पुरखों के सबसे पुराने निशान हैं। जब न भाषा थी, न लिपि, न ग्राम थे, न नगर किंतु मनुष्य था और उसकी आंखों के सामने जो कुछ भी था, उसने चट्टानों में रंग भरकर उसके प्रमाण पीढ़ियों के संज्ञान के लिए छोड़े थे।

 

मालिनी अवस्थी के कंठ में लोक की गूँज है। वे जब संस्कृति और प्रकृति समारोह की समापन संध्या में देर से प्रतीक्षारत दर्शकों के बीच भारत भवन पहुंची तो भीम बैठका का प्रसंग सुनाया और पहले ही गीत की पृष्ठभूूमि में कुछ ऐसा कहा कि भोपाल की स्मृतियों में अचानक आए एक और प्रसंग को दर्शकों ने इस पृष्ठभूमि में देखा।

 

मालिनी ने कहा :―

मालिनी ने कहा कि अवधी, भोजपुरी और मैथिली में विवाह की बेला में गाए जाने वाले गीतों में सबको न्यौतने की परंपरा है। एक ऐसा ही मंगल गीत जिसमें, सबको न्यौता दिया जा रहा है। देवता, पुरखे, सांप, बिच्छू, कोई क्रुद्ध परिजन जिसकी भृकुटियां अकारण तनी हुई हैं, सबको न्यौता। यहां तक कि गांव के उन खंडहर पड़े घरों को भी, जहां कभी कोई रहता था। भारत जहां बसता है, यह वही लोक है। इसी लोक में प्रवाहित परंपरा गीतों में सुनाई देती है, चित्रों में सुसज्जित हो उठती है और नृत्यों में उत्सव का रूप धर लेती है।

सिर्फ चार दिन पहले की ही बात है। सौ करोड़ रुपए की लागत से शुद्धिकरण के बाद नए रूप में सुसज्जित हबीबगंज रेलवे स्टेशन की घर वापसी के प्रसंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं आए और उसे रानी कमलापति को समर्पित किया। वह भी भोपाल के भूले-बिसरे पुरखों का ही स्मरण प्रसंग है, जिन्हें साजिश के तहत हाशिए पर गुमनाम छोड़ दिया गया था।

‘निजाम’ और ‘आलम’ में फारसी की महक पर बन्द-मन्द बुद्धियां झूम उठीं :―

रेलवे स्टेशन के साइन बोर्ड के इस संशोधन पर एक नया तीर भी दिमागों की संकरी गलियों में घूमा। रानी कमलापति के राजा निजामशाह और उनके हत्यारे आलमशाह के नामों में लगे “निजाम’ और “आलम’ में फारसी की महक पर बंद – मन्द बुद्धियां झूम उठीं। भोपाल में अपने पुरखों की इन भटकी हुई स्मृतियों का अधिकतम विस्तार बस तीन सौ साल तक खिंचता है। याददाश्त के फ्यूज जब उड़े हुए होते हैं तो ऐसा ही अंधेरा आसपास फैलता है। बदली हुई पहचानें ओढ़े हुए भ्रम में खुद भी गिरी होती हैं और चाहती हैं कि बाकी भी इसी गर्त में आएं।

हबीबगंज के संक्षिप्त भूल-सुधार जैसे निर्णय स्मृतियों के उड़े हुए फ्यूज को ठीक करने के प्रयास हैं, क्योंकि स्मृतियां देह के भस्म होने पर भी राख नहीं होतीं। तंतु मस्तिष्क में झनझनाते रहते हैं। मालिनी अवस्थी का भीम बैठका के चित्रों में अपने पुरखों को न्यौता अपनी स्मृतियों को तरोताजा रखना ही है। उड़े हुए फ्यूज न भीम बैठका में कुछ देखते और न नाम के एक दोस्त की हमलावर दोस्ती के पार उन्हें अपनी ही रानी उसके आसपास बसे अपने असल पुरखों का रचा-बसा संसार नजर आता, जिसकी राख पर खड़ी नई पहचानें नए फैशन सी इतराती हैं।

एक गीत – जिसमें पूरी प्रकृति झांक रही है :―

एक देवी गीत मालिनी ने प्रस्तुत किया, जिसमें पूरी प्रकृति झांक रही है। देवी नीम के वृक्ष पर झूल रही हैं। इसमें औषधीय महत्व के उन सब वृक्षों का उल्लेख आता है, जिनके जड़, तना, पत्ती या फूल को हमने कोरोना काल में काढ़े के रूप में पानी में उबालकर पीया। तो हमारे पुरखे क्या अपने उपचार संबंधी अनुभवों के निचोड़ को गीतों में ढाल रहे थे? प्रकृति की पहुंच लगभग हर लोकगीत में है, जिसमें जमना के तीर हैं, बिंदिया चुराने वाली मछरिया है, हिरनी, कोयल, चिड़िया, कीचड़, कंकड़ सब कुछ। रंग के परिचय कहां से प्राप्त हुए? केसरिया, चम्पई, गुलाबी, सुरमई, आसमानी और धानी प्रकृति की ही प्रयोगशाला से तो आए।

ये गीत हमारे अनाम पूर्वजों ने रचे और लोक की स्मृतियों में उतार दिए :―

ये गीत हमारे अनाम पूर्वजों ने रचे और लोक की स्मृतियों में उतार दिए थे, वे सदियों पुरानी परंपरा बन गए। इन स्मृतियों में भारत की महक तरोताजा है। हर पीढ़ी ने इसे न सिर्फ बचाकर रखा बल्कि इस विरासत को अपनी अगली पीढ़ी को भी सौंपा। वे अपने समय की घटनाओं से रस निचोड़कर इसी परंपरा में जोड़ते भी गए।

भारतीय संस्कृति के अनूठे अध्येता पद्मश्री डॉ. कपिल तिवारी उन बुँदेले हरबोलों को बहुत सम्मान से याद करते हैं, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान की गाथा को गांव-गांव में जाकर गाया। कौन थे वे हरबोले? आज कहां हैं? क्यों वे एक रानी का त्याग गीतों में संचित करके कंठों में धारण कर रहे थे? डॉ. तिवारी कहते हैं कि लोक ने संस्कृति का सार अपनी स्मृति में संचित किया।

राजा हरिश्चंद्र की कथा स्मरण में रही, क्योंकि वह एक उच्च मानवीय मूल्य की गाथा है। श्रवण कुमार का चरित्र पीढ़ियों से इस आशा में गाया गया, क्योंकि उसमें निहित कर्त्तव्य और सेवा का सार पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगा।

 

आश्चर्य है कि पिछले एक हजार साल भारत भर में मचे रहे आतंकी अंधड़ों के बावजूद यह ज्ञान परंपरा इतने शुद्ध रूप में बची रह गई। वह भारत की स्मृतियों का निचोड़ है, जो लोक में शेष और सुरक्षित रहा। सतह पर हमलावरों की तूफानी तोड़फोड़ चलती रही। आततायियों के झुंड कहर बरपाते रहे लेकिन तह में वह रसदार बहती ही रही। हर पीढ़ी के पुरखों का योग इसमें है। भीम बैठिका के चित्रकारों से लेकर रानी कमलापति तक……..

~ विजय मनोहर तिवारी
(वरिष्ठ पत्रकार, राज्य सूचना आयुक्त म.प्र.,भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति एवं इतिहास के गहन अध्येता एवं मर्मज्ञ)

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