निराशा और आशा के मध्य राष्ट्र व हिन्दू जाति का भविष्य

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निराशा और आशा के मध्य राष्ट्र व हिन्दू जाति का भविष्य

~अभिजीत सिंह

अपने इस लघु ‘अध्यनावकाश’ में मैंने ‘भारत’ के अस्तित्व पर छाये संकटों के काले बादलों को देखने की चेष्टा की जिसने मुझे अंदर तक भयक्रांत कर दिया।

भारत के नक़्शे में ऊपर से देखना शुरू किया तो ‘पाकिस्तान’ और ‘चीन’ द्वारा हड़पे गए ‘भारत-भूमि’ के टुकड़े और अनवरत आंतक की साए में में घिरा ‘कश्मीर’ दिखाई दिया। वहां से नीचे उतरा तो अलगाववाद और द्वेष की अग्नि लपटें मुझे ‘पंचनद प्रदेश’ से दिखाई थी और उसी के साथ दिखा उनके एक कथित मांग की समर्थन में खड़ा ‘हरियाणा’ और ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश’ की एक बड़ी आबादी जो बिना अपना हित समझे उनके पीछे दौड़ रही थी। ‘पंचनद प्रदेश’ के ‘पांथिक रूपांतरण’ की डरावनी तस्वीरें भी मुझे दिखाई दी। उसके नीचे मुझे दिखा अपने क्षणिक स्वार्थों के लिए राष्ट्र के साथ सौदे-समझौते करने वालों की जमात जिसने वोट देने में ज़रा भी समझदारी नहीं दिखाई। पहाड़ के दोनों प्रदेश में मुझे दिखा ‘चीन’ के अतिक्रमण का डरावना साया और मतान्तरण के कारण निर्जन होते बॉर्डर इलाके के गाँव और साथ ही बेरोजगारी का मंज़र।

भारत के मध्य के हिस्से में आया तो ‘मूल-निवासी’ के साथ दिखा ‘जातिवाद’ के गहरे अभिशाप से लिप्त समाज जिसे अपने जाति की ‘आइडेंटिटी’ से अलग हर ‘आइडेंटिटी’ पर गर्व करना है। वनवासियों के अंचल ‘झारखण्ड’, ‘छतीसगढ़’, ‘उड़ीसा’ और बाकी क्षेत्रों में मुझे वो टोलियाँ दिखाई थी जो सेवा के आड़ में उनकी पांथिक पहचान निगलने को व्यस्त हैं। इन प्रदेशों के साथ-साथ ‘दक्षिण’ के ‘आन्ध्र प्रदेश’, ‘तेलंगाना’ और ऐसे लगभग ‘तेरह’ राज्यों में ‘नक्सल आतंकवाद’ का क्रूर और वीभत्स चेहरा जो भारत के सामने तक्षक बनकर खड़े हैं।

‘गुजरात’ के इलाकों में पांव पसार चुके मतान्तरण के सिपाहियों का संकट तो फिर भी समझा जा सकता था पर ‘मरुधरा’ के अंदर उठती जातियों के नाम पर हो रहे बेमेल गठजोड़ ने और भी डरा दिया। ‘तमिलनाडु’ समेत ‘दक्षिण’ के राज्यों के अंदर जड़ डाल चुकी ‘हिन्दी विरोध’ और ‘द्रविड़ राजनीति’ के भयानक चेहरों से अधिक डराता है ‘केरल’ जो कभी आदि ‘शंकराचार्य’ की कर्म-भूमि रही थी पर आज वो भूमि भारत के सभी अलगाववादी तत्वों की एकता भूमि है।

बंग भूमि’ पर नज़र गयी तो वो बौद्धिकता के झूठे अहम् में इतना आगे निकल चुका है कि अब वहां उनका कुछ हो नहीं सकता। सबसे अधिक डरावना था ‘पूर्वोत्तर’ को देखना क्योंकि ‘असम’ समेत वहां के बाकी सारे राज्य ‘मतान्तरण’, ‘घुसपैठ’, ‘चीन की कुदृष्टि’, ‘अलगाववाद’ और ‘आतंकवाद’ से अभिशप्त है और पांथिक असंतुलन वहां इतना बिगड़ चुका है कि आने वाले समय में किसी के लिए भी उन प्रदेशों को संभाल सकना लगभग असंभव हो जायेगा।

कुछ मिलाकार मुझे पूरा भारत संकटों से घिरा हुआ नज़र आया। पड़ोस में नज़र डाला तो एक तरफ खुलकर ‘भारत’ को निगलने को तत्पर एक मुल्क दिखा तो दूसरे कोने पर उसी के गर्भ से निकला एक और देश नज़र आया जिसने बड़े आराम से अपनी आधी आबादी को भारत में धकेल दिया और अपने देश में चुन-चुन पर ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ को मार रहा है। ‘चीन’ के ‘विस्तारवाद’ की हनक तो अब ‘नेपाल’ तक में बड़े आराम से सुनी जा रही है। आर्थिक रूप से उसने हमारे बाज़ार पर लगभग कब्ज़ा कर लिया है।

वैश्विक स्तर’ पर ‘अब्राहमिक’ मुल्क आपस में ‘गैर-अब्राहमिक’ मुल्कों के खिलाफ गठजोड़ करने में जुटे हैं जबकि ऐसा कोई गठजोड़ गैर-अब्राह्मिकों के बीच नहीं हुआ है। दुनिया में जो भी शक्तियां आपस में संघर्षरत हैं वो सब भारत में गठजोड़ करके बैठी हैं। हमारी बच्चियां अलग षड्यंत्र का शिकार होकर जा रही हैं।

इन सबके बीच भारत का “बहुसंख्यक समाज” आज आपस के स्वार्थ, जातिगत द्वेष में उलझकर विनाश को प्रस्तुत हैं। समाज का प्रबोधन करने वाला ‘संत समाज’ आपस के द्वन्द में तो उलझे हैं ही साथ ही शास्त्रों की युगानुकूल व्याख्या न कर समाज के अंदर मतभेदों की खाई को और भी बढ़ा रहे हैं।

इन विषयों पर सांगोपांग अध्ययन और चिंतित करने के बाद मेरे सामने कुछ ही प्रश्न खड़े थे कि क्या हम बचेंगे? क्या हमारा अस्तित्व बचेगा?

एक कमजोर मानस के निराशावादी इंसान के रूप में सोचूं तो मुझे इसका उत्तर मिलता है कि हम अपनी लड़ाई हार चुके हैं और हमारा अस्तित्व केवल नियति के भरोसे टिका हुआ है पर जब एक आशावादी इंसान के नजरिये से मैं सोचने जाता हूँ तो मुझे कुछ आश्वासन इतिहास के पन्ने से मिलते हैं और कुछ वर्तमान से मिलते हैं जो मुझमें आशा का संचार कर देते हैं।

निराशा के क्षण में मिले मुझे ‘वैदिक ऋषि” जो हम हिन्दुओं को “अमृत-पुत्र” कहकर ये अभय दे रहे हैं कि तुम बचोगो भी और तुम रहोगे भी। निराशा के क्षण में मिले मुझे ‘स्वामी विवेकानंद’ जो गर्व से कहते थे कि “हिन्दुओं के पास विश्व को देने के लिए एक अमृत कुम्भ है जिसे दिये बिना वो मरेगा नहीं”। मेरे सामने उनके वो कथन भी अवलंबन बनकर सामने आये जिसमें वो कहते थे कि “यही वो भूमि है जहाँ से पुनः ऐसी ही यानि आत्मबोध, तत्वबोध और आदर्श जीवन निष्ठा की तरंगे उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देगी”

निराशा के क्षण में मिले ‘महर्षि अरविंद’ मिले जो कहते थे- “यही वह धर्म है जिसका लालन-पालन मानव-जाति के कल्याण के लिये प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास में होता आ रहा है। यही धर्म देने के लिये भारत उठ रहा है। भारतवर्ष, दूसरे देशों की तरह, अपने लिये ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नहीं उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति डालने के लिये जो उसे सौंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानव-जाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानव जाति के लिये महान् होना है।”

‘महर्षि अरविंद’ की यह भविष्यवाणी आज भारत के यशस्वी ‘प्रधानमंत्री’ के कुशल नेतृत्व में साकार होते हुए हम देख रहे हैं जब उनके कारण आज पुन: भारत आज विश्व में अपने गौरव को प्राप्त कर पा रहा है। आज उन्नत होता ‘विज्ञान’ भी हमारी मान्यताओं की पुष्टि कर रहा है, जीवन जीने की शैली, हिन्दू तत्व चिंतन, हिन्दू संस्कार, हिन्दू पर्यावरण चिंतन, हिन्दू दैनन्दिक व्यवहार की महिमा दुनिया ने ‘कोरोना’ के संकट के समय देख लिया।

आज से तेरह सौ पूर्व जिन जमीनों से लुटेरे भारत को रौंदने आते थे आज वो भी ‘भारत’ से हाथ मिलाने और सम्मान देने को आतुर हैं। ‘इस्कॉन’ के माध्यम से रोज हजारों लोग ‘सनातन धर्म’ की शीतल छाया में आ रहे हैं। ‘संस्कृत’ की, ‘योग’ की और हिन्दू आध्यात्मिक गुरुओं की चर्चा आज पूरी दुनिया में हो रही हैं।

 

इसका अर्थ ये है कि तमाम संकट और निराशा के बादलों के पीछे कहीं न कहीं हमारा सूर्य भी आलोकित है जिसका प्रकाश इन धुंधों के हटते ही दृश्यमान हो जायेगा पर इसके लिए आवश्यक है इसके वाहक हिन्दू समाज का जागरण और उसके अज्ञान का निस्तारण और साथ ही उसका आध्यात्मिक, भौतिक और राजनैतिक उत्थान क्योंकि महर्षि अरविंद कहते थे-

“जब यह हिंदू जाति तपस्विनी, उच्चाकांक्षिणी, महत्कर्मप्रयासिनी होगी, तब यह समझना होगा कि जगत् की उन्नति के दिन आरम्भ हो गये हैं, धर्म-विरोधिनी आसुरिक शक्तियों का ह्रास और दैवी शक्तियों का पुनरुत्थान अवश्यम्भवी है। अतएव इस भावना को बल प्रदान करने वाली शिक्षा भी वर्तमान समय के लिए आवश्यक है।”

 

इस शिक्षा के प्रसार में हम सब लगें यहीं हमारी साधना है, यही हमारा तप है और यही हमारा लक्ष्य भी है। इसलिए ‘ऋषि अरविंद’ की तरह अगर हम ये संकल्प करें कि “मैं इस देश और इसके उत्थान में हूँ, मैं वासुदेव हूँ, मैं नारायण हूँ। जो कुछ मेरी इच्छा होगी वही होगा, दूसरों की इच्छा से नहीं। मैं जिस चीज को लाना चाहता हूँ उसे कोई मानव-शक्ति नहीं रोक सकती।” तो हमारा यह संकल्प ही हमें अजेय बना देगा और महर्षि अरविंद ही के शब्दों में :-

“युग-धर्म और जाति-धर्म के साधित होने पर सारे जगत् में सनातन-धर्म अबाधरूप् से प्रचारित और अनुष्ठित होगा। पूर्वकाल से विधाता ने जो निर्दिष्ट किया है, जिसके सम्बन्ध में शास्त्रों में भविष्यवाणी की गयी है, वह लक्ष्य भी कार्यरूप में परिणत होगा। समस्त जगत् आर्यदेशसम्भूत ब्रह्मज्ञानियों के पास ज्ञान-धर्म का शिक्षार्थी बनकर, भारत-भूमि को तीर्थ मानकर अवनत-मस्तक होकर इसका गुरूत्व स्वीकार करेगा। उसी दिन को ले आने के लिए भारतवासियों का जागरण हो रहा है, आर्य भाव का पुनरुत्थान हो रहा है।”

~ अभिजीत सिंह 

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